आरोप
कपूर कमीशन ने सावरकर को गांधी हत्या दोषी करार दिया!
वस्तुस्थिति
गांधी हत्या के षड्यंत्र की जानकारी सरकारी अधिकारी / मंत्रियों को पहले ही थी क्या? इस प्रश्न की जांच करने के लिए कपूर कमीशन की स्थापना की गई थी। गांधी हत्या के प्रकरण में न्यायालय ने स्वातंत्र्यवीर सावरकर को पहले ही निर्दोष करार देते हुए मुक्त कर दिया था और नेहरू सरकार ने उसके विरुद्ध अपील भी नहीं की थी। इसलिए सावरकर इसमें दोषी थे या नही यह प्रश्न कपूर कमीशन के समक्ष नहीं था।
परंतु कपूर कमीशन की पूरी रिपोर्ट में गोडसे और अन्य आरोपियों का उल्लेख सावरकरवादी के रूप में सतत हुआ है। गोडसे और अन्य, हिंदू महासभा के अनुयायी थे और सावरकर उसके अध्यक्ष होने के कारण उनके संपर्क में थे। गांधी हत्या के लगभग दो वर्ष पहले ही अध्यक्ष पद से निवृत्त होने के कारण उनका गोडसे से संपर्क नहीं था। १५ अगस्त १९४७ को स्वातंत्र्यवीर सावरकर द्वारा अपने घर पर राष्ट्रध्वज फहराने के कारण और केंद्र सरकार से मतभेदों को भुलाकर सहकार्य करने के निर्णय के लिए सावरकर पर गोडसे ने अपने संपादकीय में तीव्र टिप्पणी की थी। इसलिए नाथूराम गोडसे सावरकर के अंध-अनुयायी न होकर एक अलग विचार के व्यक्ति होने की पुष्टि होने के बावजूद द्वेष के कारण इस रिपोर्ट में आरोपियों का उल्लेख सतत सावरकरवादी के रूप में किया गया है।
आगे चलकर कपूर कमीशन ने २५वें प्रकरण में मुंबई में जांच करते हुए नगरवाला को मिले साक्ष्य हत्या के षड्यंत्र की तरफ इशारा करते हैं ऐसा कहते हुए और नगरवाला को कैसे जांच करना चाहिए थी इस विषय में चर्चा करते हुए, सावरकर के विरुद्ध कोई साक्ष्य या तथ्य न होने बावजूद, कपूर ने “All these facts taken together were disruptive of any theory other than the conspiracy to murder by Savarkar and his group” ऐसा गैर जिम्मेदारी उल्लेख से किया है। लेकिन प्रकरण २५ के निष्कर्ष में इस पर कुछ नहीं है। इसी प्रकार रिपोर्ट के अंतिम निष्कर्ष में भी ऐसा एक भी शब्द नहीं है। तब द्वेष भावना से रिपोर्ट के बीच में ही कहीं डाला हुआ, बे सिर पैर का एक वाक्य कपूर कमीशन का निष्कर्ष है, यह प्रचार सरासर झूठ है।
कपूर कमीशन के समक्ष सावरकर के सचिव गजानन दामले और अंगरक्षक अप्पा कासार द्वारा सावरकर के गांधी हत्या में सम्मिलित होने की जानकारी हमें थी, ऐसा बयान देने की बात कुछ किराए के शोधकर्ता हमेशा करते हैं। लेकिन इन दोनों ने कपूर कमीशन के समक्ष कभी बयान दिया ही नहीं था। गांधी हत्या के मामले में भी इन दोनों को गवाह नहीं बनाया गया था। कपूर कमीशन के समक्ष जांचे गए १०१ गवाहों में इनके नाम नहीं थे।
गांधी हत्या के मामले में श्री पंकज फडणीस ने सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर की थी। इस याचिका पर २०१८ में फैसला सुनाते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने पुन: एक बार सावरकर को निर्दोष करार दिया और उनका गांधी हत्या से कोई संबंध नहीं था ऐसाघोषित किया। इसलिए अब गांधी हत्या में यदि कोई सावरकर पर दोष देने का प्रयत्न करता है तो वो सर्वोच्च न्यायालय की अवमानना होगी।
कपूर कमीशन ने सावरकर को गांधी हत्या में दोषी नहीं माना ऐसा निर्णय अब सर्वोच्च न्यायालय द्वारा ही दिये जाने के बाद ये प्रश्न जड़ से समाप्त हो गया है।
लेकिन इस पर और कुछ तथ्य आगे लाना ही चाहिए। सही रूप से देखें तो गांधी हत्या के झूठे आरोपों के कारण सावरकर की राजनीतिक हत्या हो गई, देश के दूसरे क्रमांक के दल हिंदू महासभा का अस्तित्व ही समाप्त हो गया और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कितने ही वर्ष पीछे चला गया!
परंतु किसी भी हत्या के पीछे कोई आंतरिक कारण होता है। गांधी हत्या के लिए सावरकर को जिम्मेदार मानने के बजाए, गांधी हत्या के कारण किसे फायदा हुआ, किसने वो हत्या होने दी ये देखना अधिक महत्वपूर्ण होगा।
‘मेन हू किल्ड गांधी’ इस पुस्तक के लेखक मनोहर मालगावकर ने सरकारी गवाह बडगे का साक्षात्कार किया तब सावरकर को हम मिले ही नहीं थे और मुझे उनके विरुद्ध झूठी गवाही देनी पड़ी ऐसा कबूलनामा बडगे ने दिया था।
परंतु कपूर कमीशन ने सावरकर को दोषी करार दिया था ऐसा ढिंडोरा सतत पीटनेवाली कांग्रेस कि सरकार ने यह रिर्पोर्ट क्यो स्वीकार नहीं की थी इस प्रश्न का उत्तर अब कांग्रेस को ही देना चाहिए। ये रिपोर्ट यदि जनता के समक्ष आई तो सावरकर का निर्दोषत्व तो सिद्ध होगा ही, परंतु उस समय जो घटीत हुआ उसकी सच्चाई जनता के समक्ष आ जाएगी।
अब गांधी की हत्या के पीछे की सच्ची वस्तुस्थिति क्या है? कपूर कमीशन क्या कहता है?
नाथूराम गोडसे द्वारा चलाई गई गोली से गांधी जी की मृत्यु हुई ये सच है। परंतु दि. २० जनवरी को हुए बम विस्फोट के बाद इस षड्यंत्र में सम्मिलित गोडसे, करकरे और आपटे की पहचान पुलिस द्वारा किये जाने के बाद भी और गोडसे गांधी को मारेंगे इसकी जानकारी कुछ वरिष्ठ मंत्रियों को पहले ही होने के बाद भी, गांधी जी की सुरक्षा के लिए कुछ नहीं किया गया।
‘द लाइफ एण्ड डेथ ऑफ महात्मा गांधी’ इस चरित्र ग्रंथ में अमेरिकन लेखक रॉबर्ट पेन ने इस हत्या का वर्णन ‘अनुमति से हुई हत्या’ के रूप में किया है। सभी संबंधित तथ्यों के अब उपलब्ध होने और उनके संयुक्त अध्ययन से, गांधी का कांटा मार्ग से दूर करने के लिए एक सुपर-कॉन्स्पिरेसी तो कार्यान्वित नहीं थी ऐसा प्रश्न निर्मित हो गया गया है।
इस हत्या के पीछे की विलक्षण परिस्थिति, उसका षड्यंत्र, उसकी पार्श्वभूमि, प्रसंग की जानकारी लेना उद्बोधक साबित होगा।
अहमदनगर (महाराष्ट्र) में २४ नवंबर और २६ दिसंबर १९४७ के दिन २ हथगोले फेंके गए। १ जनवरी १९४८ को अन्य किसी हत्या प्रकरण में पुलिस ने गंधिहत्य में सहभागी विष्णुपंत करकरे के व्यवस्थापक एसवी केतकर के घर छापा मारकर तलाशी ली। इसमें हाथ आई लोहे की पेटी में कई हथगोले, रिवॉल्वर, जंबिये, विस्फोटक, फ्यूज और पिस्तौल की गोलियां थीं। एसवी केतकर ने अपने कबूलनामे में कहा कि, उसके मालिक करकरे ने ये पेटी उसके पास रखी है। उसके बाद ९ जनवरी १९४८ को करकरे और मदनलाल पाहवा की गिरफ्तारी के आदेश जारी किये गए। परंतु उसी दिन दोपहर को ही इन दोनों ने नगर छोड़ दिया था।
२० जनवरी को गांधी जी की सभा में बम विस्फोट के बाद मदनलाल पाहवा की गिरफ्तारी हो गई और उन्होंने नगर के एक करकरा सेठ और पुणे के ‘हिंदुराष्ट्र’ समाचार पत्र के संपादक ऐसे दो नाम लिये और आपटे व बडगे का विस्तृत वर्णन किया।
परंतु इस घटना के पता चलने के बाद भी अहमदनगर पुलिस ने इसके बारे में दिल्ली पुलिस को अथवा महाराष्ट्र पुलिस मुख्यालय को कोई जानकारी नहीं दी और दिल्ली/मुंबई पुलिस ने भी इसके बारे में अहमदनगर पुलिस से कोई पूछताछ नहीं की।
मदनलाल पाहवा की गिरफ्तारी के बाद तुरंत प्रो. जगदीशचंद्र जैन नामक व्यक्ति ने महाराष्ट्र के गृहमंत्री मोरारजी देसाई से भेंट करके उन्हें बताया,“मदनलाल पाहवा ने मुझे कहा है कि, उसने और नाथुराम ने (नाथुराम गोडसे ‘अग्रणी’ समाचार पत्र के संपादक. ‘अग्रणी’ का ही पहले नाम ‘हिंदुराष्ट्र’ था) गांधी जी को मारने की योजना बनाई है।”
मोरारजी भाई ने इस संबंध में मुंबई के पुलिस प्रमुख कामते को अंधकार में रखते हुए एक कनिष्ठ अधिकारी डीसीपी नागरवाला को जांच करने के लिए कहा। परंतु नगारवाला ने इस दृष्टि से कोई कदम उठाया ही नहीं। गांधी जी की मृत्यू के ठीक एक महीने बाद जैन को उनका बयान देने के लिए पुलिस ने बुलाया।
२१ जनवरी १९४८ की दोपहर दिल्ली के डेप्युटी सुप्रिटेंडेंट जसवंत सिंह और इंस्पेक्टर बाल किशन नामक ये दो पुलिस अधिकारी विमान से मुंबई के लिए निकले। उन्हें ऐसा आदेश था कि, वे मुंबई में डेप्युटी कमिश्नर ऑफ पुलिस श्री जे.डी नगरवाला से मिलकर पूरी वस्तुस्थिति बताएं। इसके बाद पुणे जाकर असिस्टेंट इंस्पेक्टर जनरल ऑफ पुलिस रावसाहेब गुर्टू से मुलाकात करें।
२२ जनवरी १९४८ को सुबह ये दोनों अधिकारी मदनलाल के उर्दू बयान की प्रति और उसका इंग्लिश भाषा में सारांश लेकर नगरवाला से मिले। मौखिक ही उन्होंने अपने पास की सभी जानकारी, विशेषत: मदनलाल द्वारा ‘हिंदुराष्ट्र’ और ‘अग्रणी’ के संपादक वध के षड्यंत्र रचनेवालों में से थे यह उल्लेख भी नगरवाला के सामने रखी।
दि. २३ जनवरी को दिल्ली के ये दोनों अधिकारी फिर नगरवाला से मिले। उनकी पुणे जाने की इच्छा होने के बावजूद नगरवाला ने उन्हें स्पष्ट शब्दों में दिल्ली वापस जाने का आदेश दिया। दिल्ली पहुंचने पर उन्होंने अपने वरिष्ठों को बताया,‘हम एक प्रकार से नजरबंद ही थे।’
तब डीवाईएसपी देऊलकर, पुणे सीआईडी में कार्यरत थे। ‘हिंदुराष्ट्र’ समाचार पत्र के संपादकीय विभाग में कार्य करनेवाले बी.डी खेर, देऊलकर के पड़ोस में रहते थे। उनके घर के कॉमन दीवार पर हवा के लिए बनी लोहे की खिड़की के कारण, उनके घर की सारी बात सहजता से सुनने में सहायक थीं। गोडसे-आपटे-करकरे की त्रिमूर्ति खेर के यहां हमेशा आती थी। खेर को करकरे और उनके मित्र द्वारा दिए गए एक भोज निमंत्रण में देऊलकर भोजन करके भी आए थे। आपटे और नाथूराम गोडसे पर पहले से ही पुलिस के गुप्तचर नजर रखे हुए थे इसलिए देऊलकर को इन तीनों के बारे में पूरी जानकारी थी। देऊलकर की पार्श्वभूमि को देखते हुए, उनसे दिल्ली के अधिकारी मिलते तो निश्चित ही गोडसे-आपटे-करकरे को पहले ही गिरफ्तार कर लिया गया होता। मुंबई पुलिस ने उन्हें मिली जानकारी क्यों देऊलकर को नहीं दी, ये पहेली ही है।
२४ जनवरी १९४८ को मुंबई से जे.डी नगरवाला ने बम की आपूर्ति करनेवाले संशयित के रूप में दिगंबर बडगे की गिरफ्तारी का आदेश निकाला। (पेज २७)
उस समय बडगे पुणे वापस चला गया था और गांधी की हत्या के बाद गिरफ्तार होने तक वो अपने घर ही था। ३१ जनवरी १९४८ को सुबह ५:३० बजे बडगे की उसके घर से गिरफ्तारी होते ही उसने पूरी जानकारी दे दी। बडगे की यदि पहले ही गिरफ्तारी हुई होती तो गांधी हत्या निश्चित ही टल जाती।
दि. २५ जनवरी १९४८ को श्री यू.जी राणा डीआईजी महाराष्ट्र, दिल्ली में थे। उन्हें मदनलाल के मौखिक की मूल प्रति और उसका अंग्रेजी भाषांतर देकर संशयितों को पकड़ने की विनंती की गई। नई बात ये कि वे तुरंत विमान से मुंबई न आते हुए ट्रेन से अलाहाबाद मार्ग से २७ जनवरी को मुंबई पहुंचे। स्टेशन से वे सीधे नगरवाला से मिलने गए और उन्हें मदनलाल का बयान,‘हिंदुराष्ट्र’ के संपादक का उल्लेख व दूसरा सबकुछ बताया। लेकिन इसके बाद भी कोई कार्रवाई नहीं हुई।
गांधी हत्या के बाद ३५-४० हजार लोगों को, मात्र वे हिंदू महासभा तथा राष्ट्रिय स्वयंसेवक संघ के सदस्य थे इसलिए पकड़कर उनका अत्यंत उत्पीड़न किया गया। लेकिन उन्होंने गांधी की जान बचाने के लिए गोडसे, आपटे और करकरे को नहीं पकड़ा, यह कैसे मुमकिन है? ठीक है पकड़ा नहीं जा सका तो कम से कम उन्हें पहचाननेवाले पुलिस व उनकी फोटो प्रति दिल्ली क्यों नहीं भेजी गई?३१ तारीख को उन्हें पहचाननेवाले पुलिस तुरंत दिल्ली पहुंचे लेकिन गाँधी को बचाने के पहले नहीं!
गांधी जी का विरोध होने के कारण उन्हें सुरक्षा नहीं दी जा सकी ये सब झूठ है। २० तारीख के बाद वहां हत्यारी पुलिस और सेना भी तैनात की गई थी। परंतु इस सुरक्षा की जिम्मेदारी एक सहायक उप-निरिक्षक जैसे अत्यंत कनिष्ठ अधिकारी के पास थी। उसकी जगह कोई वरिष्ठ अधिकारी क्यों नहीं नियुक्त किया गया? अंग्रेजों के समय गांधी जी के आस-पास एक मानवी श्रृंखला होती थी वो अब क्यों नहीं थी?
एक आरक्षी (पुलिस) अधिकारी ने गलती की तो वो समझ सकते हैं। लेकिन इसमें लगे हुए सभी अधिकारी १० दिन तक गलतियां ही कर रहे थे ये कैसे स्वीकार होगा?
दिल्ली से अहमदनगर तक अनेक वरिष्ठ अधिकारी तथा मोरारजी देसाई जैसे मंत्री संशयितों के नाम पता चलने के बाद भी कार्रवाई न करें, शांत रहें, इसे केवल एक गलती नहीं कह सकते। कोई भी विवेकशील व्यक्ती इसे होनी कह नही सकता।
गांधी हत्या के बात हत्या रोकने मी जो ढिलाई दिखी उसपर जांच तक नहीं हुई। एक भी अधिकारी को, निलंबन तो छोड़िये, लेकिन साधारण कारण बताओ नोटिस तक नहीं दि गयी। सभी संबंधित अधिकारी आगे अपने समय पर सम्मान के साथ निवृत्त हो गए। नगरवाला जैसे व्यक्ति को, जिसे लापरवाही के लिए नौकरी से हटा दिया जाना चाहिए था, उसे राष्ट्रीयस्तर पर गांधी हत्या के अभियोग की जांच के लिए प्रमुख चुना गया आगे चलकर महाराष्ट्र पुलिस के सर्वोच्च पद, आइजीपी के पद से वे स-सम्मान निवृत्त हुए। मोरारजी भाई देसाई कांग्रेस से बाहर किये जाने के बजाए मुंबई प्रांत के मुख्यमंत्री हो गए और बाद में प्रधानमंत्री।
इन सभी जवाबदार व्यक्तियों द्वारा दिखाई गई लापरवाही पर योग्य कार्रवाई न करना और गांधी हत्या के बाद उन्हें पदोन्नतियां मिलना इसे कोई भी ‘संयोग’नहीं कहसकता।
अब गांधी की हत्या का प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रुप से बड़ा लाभ किसे?
- १९४७ को राजनीतिक स्वतंत्रता मिली लेकिन आर्थिक स्वतंत्रता अभी भी न मिल पाने के कारण कांग्रेस पार्टी का विसर्जन करके उसका रुपांतरण हिंदुस्थानी जनता की दरिद्रता निर्मूलन के लिए ‘लोक सेवक संघ’ नामक स्वयंसेवी संस्था में किया जाए ऐसी इच्छा गांधी जी की थी। कांग्रेस में से जिस किसी को सत्ता संपादन की इच्छा हो ऐसे लोग एक साथ आकर नए दल की स्थापना करके खेल खेलें, ऐसा उल्लेख करके उन्होंने मृत्यु के एक दिन पहले लिखे गए इस संविधान संशोधन प्रारूप को १५ फरवरी १९४८ को ‘हरिजन’ के अंक में छापा गया। परंतु गांधी जी की हत्या के बाद नेहरू ने कांग्रेस को विसर्जित करने की गांधी जी की इच्छा को कभी पूरा नहीं किया।
- १९४८ में ज्यादातर कांग्रेसी नेताओं का समर्थन वल्लभ भाई पटेल को था। परंतु गांधी की हत्या के बाद उमड़ी सहानुभूति की लहर के आधार पर नेहरू ने खुद को गांधी के राजनीतिक वारिस के रूप में स्थापित कर लिया। १९५२ में कांग्रेस भारी मतों से चुनकर आई और नेहरू घराने का वर्चस्व स्थापित हो गया। आज भी कांग्रेस पार्टी में इस घराने का वर्चस्व है।
गांधी हत्या का फायदा लेकर कांग्रेस सरकार ने सावरकर को इसमें घेरा और उनका राजनीतिक अस्तित्व ही खत्म कर दिया। हिंदू सभा तथा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पैंतीस से चालिस हजार कार्यकर्ता पकड़े गए। इसमें से कितने ही उत्पीड़न से मर गए। बाद में इन सभी को साक्ष्यों के अभाव में कोई कार्रवाई न करते हुए छोड़ दिया गया। रा.स्व संघ पर प्रतिबंध लगा दिया गया। बाद में स्वातंत्र्यवीर सावरकर को न्यायालय ने निर्दोष करार देते हुए निष्कलंक मुक्त कर दिया। लेकिन जो हानि होनी थी वो तो हो गयी! हिंदू महासभा जैसे विपक्षी दल को खत्म करने में नेहरू सफल हो गए। सावरकर को खत्म करने की भी वो कोशिश थी। ऐसी शैतानी योजना अंग्रेजों को भी सूझी न होती।