स्वातंत्र्यवीर सावरकर का राष्ट्रवाद और नेहरू का द्विराष्ट्रवाद

आरोप

स्वातंत्र्यवीर सावरकर ने द्विराष्ट्रवाद का समर्थन किया। इसके प्रमाण के तौर पर नागपुर में सावरकर का १५ अगस्त १९४३ में किया गया तथाकथित वक्तव्य हमेशा आगे कर दिया जाता है।

वस्तुस्थिति

कुछ समाचार पत्रों में “I have no quarrel with Mr. Jinnah’s two nation theary. We Hindus, are a nation by ourselves and it is  historical fact that Hindus and Muslims are two nations” यह वक्तव्य सावरकर के नाम प्ताकषित किया, जो वस्तुस्थिति का विरूपण करनेवाला है। इसके विषय में स्वत: स्वातंत्र्यवीर सावरकर ने तुरंत ही स्पष्टीकरण दे दिया था।

दि. १९ अगस्त १९४३ को ‘दै. काल’ में प्रकाशित स्वातंत्र्यवीर सावरकर के साक्षात्कार में उन्होंने स्पष्ट किया था कि, पत्रकार परिषद में रखे गए विस्तृत विचार जगह के अभाव में अथवा निश्चयपूर्वक विरुपित स्वरूप में पेश करके स्वातंत्र्यवीर सावरकर द्विराष्ट्रवाद के प्रणेता हैं, ऐसा झूठा समाचार प्रकाशित हुआ है। मूलत: संपूर्ण विश्व के मुसलमान अपने को खलिफा के नेतृत्व के अधीन धार्मिक राष्ट्र मानते आए हैं और इस दृष्टि से मुसलमान खुद को अलग राष्ट्र मानते हैं। लेकिन वस्तुस्थिति के अनुसार, लोकतांत्रिक दृष्टि से हिंदू ही राष्ट्र है क्योंकि अनादि काल से वही यहां बहुसंख्यक हैं और मुस्लिम अल्पसंख्यक व आक्रामक जमात है। मुस्लिमों की इस नीति के परिणामस्वरूप भारत के समक्ष विभाजन का संकट उत्पन्न हो जाने के कारण सावरकर ने हिंदू सभा के कार्यकर्ताओं को विभाजन के विरुद्ध लड़ने का आदेश दिया था।

द्विराष्ट्र का सिद्धांत मूलत: वर्ष १८८3 में सर सैयद अहमद ने रखा था। उसके बाद उर्दू कवि इकबाल ने उसका समर्थन किया और अंतत: जिन्ना के नेतृत्व में मुस्लिम लीग ने इस मांग को पकड़कर रखा। इससे सावरकर का कोई संबंध नहीं है। ये उनके विभिन्न अवसरों पर किये गए भाषणों से स्पष्ट होता है। इसे फिर रेखांकित करना आवश्यक है कि, उद्धृत किया गया वक्तव्य विरूपित करनेवाला है, सावरकर ने तुरंत स्पष्ट कर दिया था।

अब विभाजन के लिए सचd;e;eचच्च में कौन जिम्मेदार था?

संक्षेप में कहें तो नेहरू ने स्वत: ही बीबीसी को दिये साक्षात्कार में ये स्वीकार कर लिया था कि विभाजन के लिए वे जिम्मेदार हैं। लेकिन इस विषय में और जानकारी भी ले लेनी चाहिए।

लॉर्ड माउंटबेटन ने भारत के विभाजन की योजना तैयार की थी। वह योजना कांग्रेस मान्य नहीं करेगी इसका उन्हें विश्वास था। लेकिन नेहरू को वह योजना मान्य हो गई तो वे कांग्रेस से भी उसे मान्य करा लेंगे इसका भी उन्हें पक्का विश्वास था। फिर लॉर्ड माउंटबेटन ने अपनी योजना मान्य कराने के लिए, उन्होंने हमेशा प्रयोग की जानेवाली अपनी युक्ति का उपयोग किया। शिमला के वॉइस रीगल लॉज को सम्मानित लोगों के रहने के लिए सज्ज किया जाए, लॉर्ड माउंटबेटन ने ये आदेश दिया। उसके लिए मात्र ३३३ लोगों का अधिकारी, कर्मचारी वर्ग शिमला में तैयारी के लिए भेजा गया। आठ दिन बाद लॉर्ड माउंटबेटन और लेडी माउंटबेटन, पंडित नहरू को अपने साथ शिमला ले गए। उस रात नेहरू को विभाजन की योजना पढ़ने के लिए दी गई। सुबह नेहरू ने कहा कि, कांग्रेस यह योजना कदापि स्वीकार नहीं करेगी। लेकिन दिन खत्म होने के पहले ही नेहरू ने कुछ शर्तें बदलकर वह योजना मान्य कर ली।

दिनभर में ऐसा क्या घटा कि नेहरू ने वह योजना मान्य कर ली? इसके पीछे सच में क्या कारण था?

हमें नहीं पता! लेकिन ‘फ्रीडम एट मिडनाइट’ नामक पुस्तक में लॉर्ड माउंटबेटन के ध्वनि मुद्रित साक्षात्कार पर आधारित स्पष्टीकरण दिया है।

His wife’s friendship with the Indian Prime Minister had grown too. Women like Edwina Mountbatten were rare in the world and rarer still in the India of १९४७. No had been batter able to draw Nehru from his shell when moments of doubt and depression gripped him than the attractive aristocrat who radiated so much compassion, intelligence and warmth. Often, over tea, a stroll in the Mogul Gardens, or a swim in the viceregal pool, she had been able to charm Nehru out of his gloom, redress a situation and subtly encourage her husband’s efforts.

इस बीच भारतीय प्रधानमंत्री व उनकी (माउंटबेटन) पत्नी एडविना का स्नेह अच्छी तरह से प्रस्थापित हो गया। एडविना माउंटबेटन जैसी महिलाएं पूरे विश्व में और उसमें भी १९४७ के भारत में तो एकदम ही दुर्लभ थीं। संदेह और उदासीनता की गर्त से नेहरू को बाहर निकालने के लिए ये आकर्षक, कुलीन, बुद्धिमान और प्यारी महिला सबसे योग्य थी! कभी चायपान के समय, कभी मुगल उद्यान में टहलते हुए तो कभी वाइसरॉय निवास के तालाब में तैरते हुए नेहरू के मन की उदासी अपने आकर्षक, मोहक व्यवहार से दूर करते हुए इन अवसरों के माध्यम से मार्ग निकालते हुए वे सहजता से अपने पति का साथ देती थीं।

अब नेहरू ने कुछ शर्तें बदलीं, वो कौन सी?

बदली हुई एक शर्त थी कि सत्ता परिवर्तन का दिन बहुत निकट लाया जाय। जो बाद में बड़ी भूल सिद्ध हुई। विभाजन करने पश्चात सत्ता परिवर्तन होता तो दोनों राष्ट्रों की सरकार अच्छे से स्थापित हो जाती, सैन्य दल, पुलिस दल व्यवस्थित कार्यरत हो जाते और विभाजन के बाद हिंदुओं का संहार, दंगे नियंत्रण में किये जा सकते थे। मगर सत्ता की लालच में नेहरू ने, लॉर्ड माउंटबेटन के विभाजन की योजना कांग्रेस से मंजूर करा ली और मात्र दस सप्ताह में सत्ता परिवर्तन करा दिया गया। इसलिए  हिंदुओंकेनरसंहार कोरोखने में शासनअसमर्थ रहा।  जो 2 करोड़ हिन्दु मरे गए उनकी हत्या का पाप नेहरु के माथे पर है!।

नेहरू, पटेल, लियाकत अली और जिन्ना की सत्ता की भूख इस सबके लिए जिम्मेदार थी यह ‘फ्रीडम एट मिडनाइट’ नामक पुस्तक में स्पष्ट कहा गया है। तब द्विराष्ट्रवाद का जनकत्व किसके पास जाता है?

सत्ता की लालच, मुस्लिम लीग का स्वप्न और कांग्रेस द्वारा किया गया उनका तुष्टीकरण, या लेडी माउंटबेटन का नेहरू पर प्रभाव?? संक्षिप्त में, सावरकर का द्विराष्ट्रवाद से रत्तीभर भी संबंध नहीं है। इसके उलट उन्होंने अखंड हिदुस्थान के जो संघर्ष किया उस की हम जानबूझकर अनदेखी कर रहे हैं।

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