आरोप
स्वातंत्र्यवीर सावरकर कट्टर हिंदुत्ववादी, धर्मांध और कट्टर जातिवादी ब्राम्हण हैं।
वस्तुस्थिति
जातिवादी ब्राम्हण?
सावरकर ने जाति-पांति का निर्मूलन हो इसके लिए कार्य किये उन्हें ही जातिवादी ठहराया जा रहा है। वे ब्राम्हण थे मात्र इसीलिए उन पर तरह-तरह से कीचड़ उछाला जा रहा है। जबकि इस तथाकथित ब्राम्हण ने रत्नागिरी में १३ वर्ष की स्थानबद्धता काल में अस्पृश्यता निर्मूलन का जो कार्य किया उसका कोई सानी नहीं है।
सावरकर ने अंदमान जेल से छूटने के बाद तीन वर्ष येरवदा जेल में व्यतीत किया और उसके बाद राजनीति में हिस्सा न लेने की शर्त पर उन्हें १९२४ से पांच साल के लिए रत्नागिरी में स्थानबद्ध कर दिया गया। कैद में रहकर न तो देश स्वतंत्र हो पाएगा और न ही समाजसेवा साध्य हो पाएगी इसे समझते हुए सावरकर ने स्थानबद्धता स्वीकार की थी। लेकिन इस पर भी उन पर आरोप-प्रत्यारोप होते रहे हैं। स्थानबद्धता स्वीकारने के पीछे सावरकर की रणनीति थी कि खुले तौर पर राजनीति भले ही साध्य न हो पाए लेकिन समाजसेवा करुंगा और इस समाजसेवा के जरिये ही राजनीति में सक्रियता बना लूंगा।
पारतंत्रता के उस काल में हिंदू समाज को सात बेड़ियों ने जकड़ रखा था। जिसमें सिंधू बंदी, स्पर्श बंदी, व्यवसाय बंदी, रोटी बंदी, बेटी बंदी, शुद्धि बंदी और वेद बंदी थी। हिंदुओं की प्रगति को अवरुद्ध करनेवाली इन बेड़ियों को तोड़ने का निश्चय सावरकर ने किया था और इसके लिए उन्होंने अपने पैरों को स्थानबद्धता की बेड़ियों में जकड़ेजाना स्वीकार कर लिया।
सावरकर की स्थानबद्धता के सात वर्ष ही बीते थे कि कर्मवीर विट्ठल रामजी शिंदे ने रत्नागिरी में उनसे भेंट की थी। सावरकर का कार्य देखकर वे बोले, “अस्पृश्यता निर्मूलन का कठिन और जटिल कार्य मैं पूरे जीवन करता रहा हूं लेकिन थोड़े ही समय में इस वीर ने जितना बड़ा कार्य किया है उसकी जितनी प्रशंसा करूं वह कम है। ईश्वर मेरी बची हुई आयु भी उन्हें दे दें।”
जिस समय गांधी चतुर्थ वर्ण का गुणगान कर रहे थे और उसके विरुद्ध किये गए कार्यों को पाप मानते थे उस समय सावरकर जाति और वर्ण व्यवस्था को खत्म करने की कोशिश कर रहे थे। “किसी भी जाति द्वारा दूसरों की अपेक्षा स्वयं को श्रेष्ठ मानना बड़ी गलती है। प्रत्येक जाति की एक विशेषता होती है और उस सीमा तक ही जाति व्यवस्था को माना जाए। “छुआ-छूत के विष का मूल ही ये जातिवाद है। जब तक छुआ-छूत की जड़ को खत्म नहीं करेंगे तब तक छुआ-छूत खत्म नहीं होगा।” इसकी शिक्षा देनेवाले सावरकर को मात्र ब्राम्हण मानकर उनका तिरस्कार किया जाए, द्वेष किया जाए तो ऐसे विद्वेषी ही जातिवादी साबित होते हैं। “मात्र मनुष्य ही एक जाति है” ऐसा माननेवाले सावरकर तो बिल्कुल भी जातिवादी नहीं हैं।
अस्पृश्यों को हरिजन भी नहीं कहना चाहिए क्योंकि हम सभी हरिजन ही हैं। उन्हें पतित न कहा जाए क्योंकि हम सभी ही पतित हैं। इन्हीं विचारों को लेकर स्वातंत्र वीर सावरकर ने सेठ भागोजी कीर के सहयोग से रत्नागिरी में पतित पावन मंदिर का निर्माण करवाया। जिसे सभी के लिए खुला रखा गया था। मंदिर की सीढ़ियों तक ही जा पानेवाले अस्पृश्य जनों को मंदिर में प्रवेश ही नहीं दिया बल्कि गर्भ गृह में जाकर पूजा करने का सम्मान सावरकर ने दिलाया।
रत्नागिरी के छुआ-छूत मानने वाले समाज में यह क्रांति सहजता से संभव नहीं थी। जातिवाद मात्र उच्च वर्ण के लोगों में ही नहीं था वरन् संपूर्ण हिंदू समाज इस जातिवाद से ग्रसित था और आज भी है। इसीलिए सावरकर के साथ इस कार्य में सम्मिलित सभी का पुरजोर विरोध हुआ, उनका बहिष्कार किया गया। लेकिन अधिकतर युवा पीढ़ी सावरकर के साथ खड़ी रही। यही कारण था कि छूटने के बाद जब सावरकर रत्नागिरी से निकले तो वहां से अस्पृश्यता नब्बे प्रतिशत खत्म हो चुकी थी।
सावरकर ने अति-दलितों के उद्धार का भी कार्य किया। उनकी बस्तियों में जाकर उन्हें शिक्षा और स्वच्छता का महत्व समझाया। उनके लिए चुड़िहार का कार्य, बैंड पार्टी आदि के उद्योग शुरू कराए। उनके लिए जलपान गृह शुरू करवाए। सावरकर खुद जाकर वहां बैठते थे और सभी उस जलपान गृह का उपयोग करें इसकी कोशिश करते थे। जिस काल में महा-दलितों की परछाईं से भी बचा जाता था उस समय उन्होंने साथ बैठकर भोजन करने की व्यवस्था शुरू की। उस भोज में सम्मिलित होनेवालों का हस्ताक्षर लिया जाता था। उनके नाम समाचार पत्रों में छापे जाते थे। सावरकर ने पत्नी यमुनाबाई के सहयोग से महिलाओं को एकजुट करने के लिए हल्दी कुमकुम कार्यक्रम आयोजित किया। वेद पठन किसी विशेष समाज का एकाधिकार नहीं है बल्कि जो वेदों का अध्ययन करेगा वो वेद पठन-पाठन का अधिकारी होगा। इसके लिए अति-दलितों के बच्चों को वेद की शिक्षा दी, उन्हें वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में सहभागी करवाया और इन बच्चों ने स्पर्धाओं में विजय भी हासिल की।
…और कट्टर हिंदुत्ववादी धर्मांध?
ऐसी जाति-पांति के विरुद्ध लड़नेवाले सावरकर पर धर्मांध हिंदुत्ववादी होने का आरोप भी किया जाता है। हिंदू कट्टरवादी नहीं होते, यदि कट्टरवादी होते तो पाकिस्थान, बांग्लादेश से धर्मांध मुसलमानों के अत्याचार से तंग आकर भारत में शरणार्थी बने वहां के अल्पसंख्यक समाज के लोगोंको भारत की नागरिकता दी गई तब उन अत्याचार करनेवाले मुस्लिम घुसपेठियों को भी भारतीय नागरिकता मिले ऐसी मूर्खतापूर्ण मांग न करते!
हिंदू कट्टरवादी होते तो आज देश विरोधी आंदोलन करने की और १५ करोड़ मुस्लिम १०० करोड़ हिंदुओं को खत्म कर देंगे ऐसी घोषणा करने की किसी की हिम्मतन होती।
सावरकर हिंदुत्ववादी जरूर थे लेकिन उसी तरह वे एकमात्र धर्मनिरपेक्ष नेता थे और हैं। सावरकर को किसी धर्म का आडंबर स्वीकार्य नहीं था। उनका मानना था कि ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ ही समस्त मानव जाति का अंतिम उद्देश्य होना चाहिए। लेकिन यह भी सत्य है कि उनके इन विचारों को पचा पाने की क्षमता हम लोगों में ही नहीं है।
हिंदुत्ववादी और धर्मनिरपेक्ष? ये क्या झमेला है?
इसके लिए सावरकर के हिंदुत्व को जड़ से समझना होगा।
सावरकर ने हिंदू शब्द की एकदम सरल व्याख्या की है। वे कहते हैं, ‘आसिंधू सिंधुपर्यंता यस्य भारतभूमिका पितृभू पुण्यभूश्चैव स वै हिंदूरीति स्मृत:।’
इसका अर्थ है सिंधु नदी से सागर तक फैली भारत भूमि को जो पितृ भूमि और पुण्य भूमि मानता है वह हिंदू है।
पितृ भूमि का अर्थ है पैतृक रूप से अर्जित भूमि और पुण्य भूमि का अर्थ है जिन-जिन धर्म-पंथों का जन्म इस भारत भूमि में हुआ है उन पंथों के अनुयायी अर्थात वैदिक, सनातनी, आर्य समाजी, जैन, बौद्ध, सिख, लिंगायत सभी, यहातक की नास्तिक भी, हिंदू हैं।
सावरकर इतिहास के मर्मज्ञ थे। हम हिंदू के तौर पर एक साथ आकर कभी नहीं लड़े इसलिए हम हार रहे थे इसे समझते हुए सावरकर ने गंभीरता से हिंदू शब्द की व्याख्या की। सावरकर के इस सर्व समावेशी हिंदुत्व को स्वीकार कर लिया जाए तो समाज में पेंच ही खत्म हो जाएगा और राजनीतिज्ञों को अपनी रोटी सेंकने नहीं मिलेगी इसीलिए सावरकर के हिंदुत्व की भूमिका आज भी उपेक्षित ही है, साथ ही उन्हें ही कट्टरपंथी भी ठहराया जा रहा है।
सावरकर की व्याख्या से ईसाई, मुस्लिम, यहूदी और पारसियों को हिंदू के तौर पर अलग रखा गया ऐसा आक्षेप हमेशा होता है। तो क्या मुस्लिम और ईसाई तैयार है अपने आपको हिंदू मानने को? यहूदी और पारसी पूरी तरह से घुलमिल गए हैं इसलिए उन्हें अलग मानने की आवश्यकता नहीं है। उस समाज से हमें कभी भी दिक्कत नहीं हुई, बल्कि देश को मजबूती से खड़ा करने में उनका महत्वपूर्ण योगदान है लेकिन ईसाई और मुसलमानों की पुण्य भूमि हिंदुस्थान नहीं है इसलिए सावरकर की व्याख्या के अनुसार वे हिंदू नहीं हैं। मुसलमानों की निष्ठा मक्का से और ईसाइयों की निष्ठा वेटिकन से होती है। फिर भी सावरकर ने स्पष्ट किया कि यदि मुसलमान और ईसाइयों ने अपना धर्माग्रह छोड़ दिया तो मैं भी हिंदू धर्माग्रह नहीं रखूंगा। यदि इन्होंने आज भी यह कहा कि भारत भूमि को हम सर्वोपरि मानते हैं और सावरकर की व्याख्या के अनुसार हमें भी हिंदू कहे तो निश्चितही हम भी इन्हें हिंदू मानने के लिए तैयार हैं। लेकिन ये ऐसा कहेंगे क्या? नहीं! फिर भी हम इन्हें भारत का नागरिक मानते हुएसमान अधिकार देते हैं। हमारा विरोध है मात्र धर्म के आधार पर भेदभाव करते हुए गैर हिंदुओं को ज्यादा अधिकार देने को।
सावरकर कहते हैं, ‘श्रुति-स्मृति पुराण, कुरान, बाइबिल’ आदि सभी धर्म ग्रंथ कपाट में रखें और केवल इतिहास ग्रंथ के तौर पर अध्ययन करें। वर्तमान काल में क्या योग्य है यह निश्चय करने का अधिकार समाज का है, धर्म ग्रंथों का नहीं। धर्म को घर में मानें, सड़क पर न लाएं।
संसद में प्रवेश करते समय प्रत्येक जनप्रतिनिधि अपना धर्म, पंथ, जाति-पांति बगल में रखकर भारतीय नागरिक के तौर पर प्रवेश करे यह कहनेवाले सावरकर धर्मनिरपेक्ष ही हैं।