सैन्य भर्तियों के पीछे सावरकर की दूरदृष्टि

आरोप

स्वातंत्र्यवीर सावरकर ने अंग्रेजों की सहायता की, नेताजी बोस का विरोध किया।

वस्तुस्थिति

स्वातंत्र्यवीर सावरकर ने स्वतंत्रता के पहले और उसके बाद में भी सैनिकीकरण का समर्थन किया। इसके पीछे का कारण न समझते हुए उन्हें रिक्रुटर, अंग्रेजों का एजेंट बुलाया गया और आज भी वही आरोप उन पर हो रहा है।

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अंग्रेजों की सेना में घुसकर सैनिक शिक्षा लेकर उस नियोजनबद्ध शिक्षा का उपयोग राष्ट्र निर्माण में होगा, लेकिन समय आते ही बंदूक की नली किस दिशा में मोड़नी है वो अपने हाथ में होगा ये उसके पीछे का नितीगत विचार था।

अंग्रेजों के शासनकाल में, उनकी सेना में हिंदुओं की संख्या लगभग पैंतीस प्रतिशत थी। सावरकर के सैनिकीकरण के समर्थन से अंग्रेजों की सेना में हिंदुओं की संख्या बढ़कर पैंसठ प्रतिशत तक पहुंच गई। सच्चाई यह है कि भारत का विभाजन धर्म के आधार पर हुआ है और विभाजन के बाद सभी मुस्लिम पलटने पाकिस्तान में सम्मिलित हो गई। अगर सावरकर ने हिन्दुओंके सैन्य भरती की ये मुहिम न शुरू की होती तो पाकिस्तान की सेना हमारे दुगुने आकार की होती और पाकिस्तान स्वतंत्रता के दूसरे दिन आक्रमण करके, पूरे भारत पर कब्जा कर लेता।

१९४८ में पाकिस्तान ने कश्मीर पर आक्रमण किया भी, लेकिन हम सैन्य बल में किंचित भी कम नहीं पड़े। सच कहें तो इस एक दूरगामी दृष्टिकोण के लिए भी देश को उनका ऋणी होना चाहिए, लेकिन हम उन्हीं पर दोषारोपण कर रह हैं।

स्वातंत्र्यवीर सावरकर कुछ जापानी बौद्ध भिक्षुओं के माध्यम से जापान में रहनेवाले महान भारतीय क्रांतिकारी और आजाद हिंद सेना के संस्थापक रासबिहारी बोस के संपर्क में थे। दुनिया फिर विश्वयुद्ध के मुहाने पर खड़े होने के कारण विश्वयुद्ध के बीच योग्य समय पर सैनिक विद्रोह करने की उनकी योजना थी। ऐसा प्रयत्न प्रथम विश्व युद्ध के दौरान भी हुआ था और उसमें सावरकर द्वारा स्थापित ‘अभिनव भारत’ नामक संगठन के सदस्यों का सहभाग था। ऐसे षड्यंत्रों का स्पष्ट प्रमाण कभी नहीं होता, लेकिन परिस्थितिजन्य प्रमाणों से सिद्ध किया जा सकता है।

नेताजी सुभाषचंद्र बोस २१ जून १९४० को वीर सावरकर को उनके दादर के निवासस्थान आकर मिले थे. सावरकरजी ने उन्हें रासबिहारी बोस का पत्रव्यवहार दिखाकर कहा की रासबिहारीजी प्रकृतिअस्वास्थ के कारण थक गए है और अब उन्हें एक नए नेतृत्व की आवश्यकता है। इसके पश्चात ही नेताजी ने जर्मनी जाने का फैसला लिया।

२१ मार्च १९४२ को रासबिहारी बोस रेडियो पर संबोधित करते हुए सावरकर को उद्देशित करके बोले,“आप जैसे वरिष्ठ सहयोगी को प्रणाम करना, मैं अपना कर्तव्य समझता हूं। भारतीय राजनीति कभी दूसरे देश की नीति पर अवलंबित नहीं होनी चाहिए और शत्रु का शत्रु हमारा मित्र होना चाहिए, इस नीति का स्मर्थन करके आपने अपनी महानता फिर सिद्ध कर दी है।”

२५ जून १९४४ को नेताजी सुभाष चंद्र बोस आजाद हिंद रेडियो से संबोधित करते हुए कहते हैं, लहरी और भ्रामक राजनीतिक विचार और दूरदृष्टि के अभाव में आज कांग्रेस के कई नेताओं द्वारा भारतीय सैनिकों को किराएदार कहकर अपमानित किये जाने के समय सावरकर निर्भयता से भारतीय युवकों को सेना में भर्ती होने के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं, ये समाधानकारक है। इन्हीं सैनिकों में से हमारी भारतीय राष्ट्रीय सेना को प्रशिक्षित सैनिक मिल रह हैं।”

उसी प्रकार इस बीच स्वातंत्र्यवीर सावरकर के जापान में क्रांतिकारी और आजाद हिंद सेना के संस्थापक रासबिहारी बोस के संपर्क में होने के निर्विवाद साक्ष्य उपलब्ध हो गए हैं। उससे सावरकर द्वारा शुरू की गई सैन्य भर्ती को रासबिहारी बोस का समर्थन मिलना भी सिद्ध होता है। श्री बोस ने मार्च और अप्रैल १९३९ में ‘दाई आजिया शुगी’ नामक जापानी मासिक पत्रिका में सावरकर के बारे में लिखा है। इस चरित्र वर्णन का शीर्षक है, सावरकर : नए भारत का उदीयमान नेता, कर्तुत्व और व्यक्तित्व। इस लेख में सावरकर की सैन्यकरण की नीति और हिंदुत्ववादिता की पहचान जापानी जनता से कराते हुए लेख के अंत में लिखा गया निष्कर्ष महत्वपूर्ण है। लेख के अंत मे लिखा गया है, आप सावरकर के विचारों से सहमत होगे तभी तुम राजनीतिक दृष्टि से सामर्थ्यशाली बन पाओगे। भारतीय स्वातंत्रता आंदोलन में सावरकर का स्थान स्थायी है।

हाल ही में दिल्ली के इंदिरा गांधी विश्वविद्यालय के प्रो. कपिल कुमार को आजाद हिंद सेना के कुछ सैनिकों के जवाब और पत्र मिले, उसके अनुसार स्पष्ट हुआ कि वे सभी सावरकर के कहे अनुसार सेना में भर्ती हुए और बाद में आजाद हिंद सेना में शामिल हो गए।

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